वहशी को सुकूँ से क्या मतलब जोगी का नगर में ठिकाना क्या !

आज इब्न-ए-इंशा जी की एक गज़ल शेयर कर रहा हूँ। विख्यात गज़लकार और हास्य लेखक- इब्न-ए-इंशा जी का जन्म पाकिस्तान में हुआ था। उनकी अनेक गज़लें बहुत लोकप्रिय हुई हैं और विख्यात गज़ल गायकों ने इन्हें गाया है।

उनकी इस गज़ल के बारे में विशेष बात यह कि यह गज़ल ‘इंशा जी अब कूच करो’ ज़नाब अमानत अली खान जी ने गाई थी और कुछ समय बाद ही उनकी मृत्यु हो गई थी। अमानत अली खान जी के बेटे असद अमानत अली जी ने भी बाद में यह गज़ल गाई थी और यह उनकी गायी हुई अंतिम गज़ल साबित हुई। यह कहा जाता है कि इब्न-ए-इंशा जी ने, अपनी मृत्यु से कुछ समय पहले, अपने एक दोस्त को पत्र में लिखा था कि यह मनहूस गज़ल पता नहीं कितनी और जान लेगी।

अब आप यह समझ सकते हैं कि मैं भी यह गज़ल उद्धृत करके ‘रिस्क’ ले रहा हूँ।
(गज़ल और यह प्रसंग मैंने साभार ‘रेख्ता’ से लिया है।)

इंशा’-जी उठो अब कूच करो, इस शहर में जी को लगाना क्या,
वहशी को सुकूँ से क्या मतलब, जोगी का नगर में ठिकाना क्या?

इस दिल के दरीदा दामन को, देखो तो सही सोचो तो सही,
जिस झोली में सौ छेद हुए, उस झोली का फैलाना क्या?

शब बीती चाँद भी डूब चला, ज़ंजीर पड़ी दरवाज़े में,
क्यूँ देर गए घर आए हो, सजनी से करोगे बहाना क्या?

फिर हिज्र की लम्बी रात मियाँ, संजोग की तो यही एक घड़ी,
जो दिल में है लब पर आने दो, शर्माना क्या घबराना क्या?

उस रोज़ जो उन को देखा है, अब ख़्वाब का आलम लगता है,
उस रोज़ जो उन से बात हुई, वो बात भी थी अफ़साना क्या?

उस हुस्न के सच्चे मोती को, हम देख सकें पर छू न सकें,
जिसे देख सकें पर छू न सकें, वो दौलत क्या वो ख़ज़ाना क्या?

उस को भी जला दुखते हुए मन, इक शो’ला लाल भबूका बन,
यूँ आँसू बन बह जाना क्या, यूँ माटी में मिल जाना क्या?

जब शहर के लोग न रस्ता दें, क्यूँ बन में न जा बिसराम करे,
दीवानों की सी न बात करे, तो और करे दीवाना क्या?

आज के लिए इतना ही,

धन्यवाद।