193. वृक्ष खुली पुस्तक हर पृष्ठ फड़फड़ाया!

कई दिन से पुराने ब्लॉग परोस रहा था, वैसे एक बात है कि जब ब्लॉग लिखना शुरू किया तब बहुत अधिक उत्साह था, काफी कुछ मन में था- ये कहना है, ये भी कहना है। पुराने ब्लॉग ज्यादातर साथियों के साथ शेयर भी नहीं हुए थे। आगे भी कुछ ऐसे ब्लॉग शेयर करूंगा।
आज सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जी की एक कविता याद आ रही है, देश के कुछ हिस्सों में जब सर्दियों में कई दिन तक धूप नहीं निकलती है और फिर किसी दिन सुहावनी धूप निकल आती है, जिसे धर्मवीर भारती जी ने लिखा था- ‘जार्जेट के पल्ले सी, यह दोपहर नवंबर की!’
सर्वेश्वर जी की यह गीत-कविता भी सर्दियों की दोपहर का बहुत सुंदर वर्णन प्रस्तुत करती है, ‘सूरज खरगोश धवल, गोद उछल आया’, ‘मेघ ऊन का गोला बुनती सुकुमारी’।
लीजिए इस सुंदर कविता का आनंद लीजिए-

बहुत दिनों बाद मुझे धूप ने बुलाया।
ताते जल नहा, पहन श्वेत वसन आई
खुले लॉन बैठ गई दमकती लुनाई
सूरज खरगोश धवल गोद उछल आया।
बहुत दिनों बाद मुझे धूप ने बुलाया।

नभ के उद्यान छत्र तले मेघ टीला
पड़ा हरा फूल कढ़ा मेजपोश पीला
वृक्ष खुली पुस्तक हर पृष्ठ फड़फड़ाया
बहुत दिनों बाद मुझे धूप ने बुलाया।

पैरों में मखमल की जूती सी क्यारी
मेघ ऊन का गोला बुनती सुकुमारी–
डोलती सलाई, हिलता जल लहराया
बहुत दिनों बाद मुझे धूप ने बुलाया।

बोली कुछ नहीं, एक कुरसी की खाली
हाथ बढ़ा छज्जे की छाया सरका ली
बाहं छुड़ा भागा, गिर बर्फ हुई छाया
बहुत दिनों बाद मुझे धूप ने बुलाया।

                                                                – सर्वेश्वर दयाल सक्सेना

नमस्कार।