58. वहाँ पैदल ही जाना है…..!

आज फिर से पुराने ब्लॉग का दिन है, लीजिए प्रस्तुत है एक और पुराना ब्लॉग-
आज ऐसे ही, गीतकार शैलेंद्र जी की याद आ गई। मुझे ये बहुत मुश्किल लगता है कि किसी की जन्मतिथि अथवा पुण्यतिथि का इंतज़ार करूं और तब उसको याद करूं।
मैंने कहीं पढ़ा था कि शैलेंद्र जी इप्टा से जुड़े थे और वहीं किसी नाटक के मंचन के समय पृथ्वीराज कपूर जी उनसे मिले, बताया कि उनके बेटे राज कपूर अपनी पहली फिल्म बनाने वाले हैं और उनसे फिल्म में गीत लिखने का अनुरोध किया। शैलेंद्र उस समय अपनी विचारधारा के प्रति पूरी तरह समर्पित थे और उन्होंने कहा कि वे फिल्म के लिए गीत नहीं लिखेंगे। पृथ्वीराज जी ने उनसे कहा कि जब उनका मन हो तब वे आकर मिल लें, अगर वे आएंगे तो उनको बहुत अच्छा लगेगा। इत्तफाक़ से वह घड़ी बहुत जल्द आ गई और हमारी फिल्मों को शैलेंद्र जैसा महान गीतकार मिल गया। सिर्फ इतना ही नहीं, शैलेंद्र, हसरत जयपुरी, मुकेश, शंकर जयकिशन का राजकपूर के साथ मिलकर एक ऐसा समूह बना, जिसने हमारी फिल्मों अनेक अविस्मरणीय गीत दिए, जिनमें सिर्फ महान विचार और भावनाएं नहीं अपितु आत्मा धड़कती है। संगीतकार के तौर पर इस समूह में कल्याण जी-आनंद जी और शायद लक्ष्मीकांत प्यारे लाल भी जुड़े। कुछ ऐसा संयोग बन गया कि शैलेंद्र अथवा हसरत गीत लिखेंगे, शंकर जयकिशन उसका संगीत देंगे, मुकेश उसके पुरुष कंठ होंगे और पर्दे पर पर राज कपूर की प्रस्तुति इस सभी का संयोग बनकर वह गीत अमर बन जाएगा-

तुम जो हमारे मीत न होते
गीत ये मेरे- गीत न होते।
तुम जो न सुनते,
क्यों गाता मैं,
दर्द से घुट कर रह जाता मैं।
सूनी डगर का एक सितारा-
झिलमिल झिलमिल रूप तुम्हारा।

एक बहुत बड़ी शृंखला है ऐसे गीतों की, जिनमें बहुत गहरी बात को बड़ी सादगी से कह दिया गया है। नशे का गीत है तो उसमें भी बड़ी सरलता से फिलॉसफी कह दी गई है-

मुझको यारो माफ करना, मैं नशे में हूँ-
कल की यादें मिट चुकी हैं, दर्द भी है कम
अब जरा आराम से आ-जा रहा है दम,
कम है अब दिल का तड़पना, मैं नशे में हूँ।
है जरा सी बात और छलके हैं कुछ प्याले,
पर न जाने क्या कहेंगे, ये जहाँ वाले,
तुम बस इतना याद रखना, मैं नशे में हूँ।

शराबियों से ही जुड़ी एक और बात, वो रोज तौबा करते हैं और रोज भूल जाते हैं, इन बातों को इस गीत में कितनी खूबसूरती से कहा गया है-

याद आई आधी रात को, कल रात की तौबा,
दिल पूछता है झूम के, किस बात की तौबा!
जीने भी न देंगे मुझे, दुश्मन मेरी जां के,
हर बात पे कहते हैं कि- इस बात की तौबा!
बातों में वफा और वो मर मिटने की कस्में,
क्या दौर था, उस दौर के जज़्बात की तौबा।

और फिर सादगी और मानवीयता के दर्शन से भरे ये गीत-

किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार,

किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार,

किसी के वास्ते हो तेरे दिल में प्यार-

जीना इसी का नाम है।

रिश्ता दिल से दिल के ऐतबार का,

जिंदा है हमीं से नाम प्यार का,

किसी के आंसुओं में मुस्कुराएंगे,

मर के भी किसी को याद आएंगे,

कहेगा फूल हर कली से बार-बार

जीना इसी का नाम है।

या फिर-

इन काली सदियों के सिर से, जब रात का आंचल ढ़लकेगा,
जब दुख के बादल छिटकेंगे, जब सुख का सागर छलकेगा,
जब अंबर झूमके नाचेगा, जब धरती नगमे गाएगी-
वो सुबह कभी तो आएगी।

एक और-

जेबें हैं अपनी खाली, क्यों देता वर्ना गाली,
ये संतरी हमारा, ये पासबां हमारा।
चीन-ओ-अरब हमारा, हिंदोस्तां हमारा,
रहने को घर नहीं है, सारा जहाँ हमारा।

और अंत में-

तुम्हारे महल- चौबारे, यहीं रह जाएंगे सारे,
अकड़ किस बात की प्यारे, ये सर फिर भी झुकाना है।
सजन रे झूठ मत बोलो, खुदा के पास जाना है,
न हाथी है न घोड़ा है, वहाँ पैदल ही जाना है।

ये सब मैंने कहा, कवि शैलेंद्र जी को याद करके, हालांकि मुझे इस बात की जानकारी नहीं है कि जिन गीतों की पंक्तियां मैंने यहाँ लिखी हैं, उनमें कौन सा गीत शैलेंद्र जी का है, कौन सा नहीं, लेकिन इतना ज़रूर है कि ये सभी गीत उसी परंपरा के हैं, जिसके शैलेंद्र जी प्रतिनिधि थे। हाँ इन सभी गीतों को मुकेश जी ने अपनी सीधे दिल में उतर जाने वाली आवाज़ दी है।

मुझे नहीं मालूम कि आपको यह आलेख कैसा लगेगा, लेकिन मुझे इस सफर से गुज़रकर बहुत अच्छा लगा और आगे भी जब मौका मिलेगा, मैं इस प्रकार की बातें करता रहूंगा। हर गीत की कुछ पंक्तियां लिखने के बाद मुझे लगा है कि जो पंक्तियां मैंने यहाँ नहीं दी हैं, उनको लिखता तो और अच्छा रहता। इन अमर गीतों की कुछ पंक्तियों के बहाने मैं शैलेंद्र जी को और इन गीतों से जुड़े सभी महान सर्जकों, कलाकारों को याद करता हूँ।
नमस्कार।
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3 responses to “58. वहाँ पैदल ही जाना है…..!”

  1. धन्यवाद अनन्या जी।

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      1. Thanks.

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