64. आनंदोत्सव!

आज फिर से प्रस्तुत है, एक और पुराना ब्लॉग-

मैंने तीन दिनों तक चले श्री श्री रविशंकर जी द्वारा संचालित आनंदोत्सव में भाग लिया। ऐसे शिविर उनकी संस्था- ‘आर्ट ऑफ लिविंग’ द्वारा आयोजित किए जाते रहते हैं, लेकिन जैसा मुझे बताया गया, 30 वर्षों के इन शिविरों के इतिहास में यह तीसरी बार था कि श्री श्री ने सीधे इनमें भागीदारी की और पूरे देश में लाइव इंटरनेट के माध्यम से लगभग 70,000 लोगों को संबोधित किया, उनको सुदर्शन-क्रिया कराई और उनके प्रश्नों के उत्तर दिए।

मैंने इस प्रकार के किसी शिविर में पहली बार भाग लिया और मुझे बहुत अच्छा लगा।
श्री श्री रविशंकर जी ने जो पांच मूलभूत सिद्धांत प्रतिभगियों को जीवन में अपनाने के लिए कहा, वे वैसे तो हम सभी जानते हैं, लेकिन जीवन में अपना नहीं पाते। हम दूसरों को उपदेश देने के लिए तो इनको याद कर लेते हैं, लेकिन खुद नहीं अपनाते। लीजिए मैं भी इनमें से कुछ को दोहराकर, जितना मुझे याद है, अपनी ज़िम्मेदारी पूरी कर लेता हूँ।

पहला सिद्धांत है कि हम दूसरे लोगों को, जैसे वे हैं, उसी रूप में स्वीकार करें। ऐसा नहीं कि हम कहें कि अगर ये ऐसा करे तो ठीक होगा और वैसा करे तो गलत है। हर व्यक्ति का स्वभाव अलग है और वह वैसा ही करेगा, जैसा उसको ठीक लगता है, न कि जैसा आपको ठीक लगता है। जितना अधिक आप, लोगों को जैसे वे हैं, उसी रूप में सहजता से स्वीकार करने लगेंगे, उतना अधिक आप तनावमुक्त रह सकेंगे।

दूसरी बात है कि, यह सोचने में समय बर्बाद न करें कि दूसरे लोग आपके बारे में क्या सोचते हैं। आप जो भी करें, वे अपनी तरह ही सोचेंगे। आप सोचकर उनकी सोच के बारे में न तो जान पाएंगे और न उसको बदल पाएंगे। आप बिना कारण के तनाव के शिकार ही हो सकते हैं।
एक सिद्धांत यह भी है कि वर्तमान में रहें, अतीत की कड़वी बातें विशेष रूप से एकदम भूल जाएं। अच्छी बातें स्मृति में रहें तो अच्छी बात है।

यह भी कि स्वयं को दूसरों के विचार एवं व्यवहार के सामने फुटबॉल न बनाएं। किसी ने अगर गलत बात की है या कही है, तो उसको चाहें तो बता दें कि वह आपको गलत लगा, लेकिन उसको अपने दिमाग में न रखें। उसको सही मत मानिए लेकिन माफ कर दीजिए, अपने मन को कड़वी बातों का मर्तबान मत बनाइए, उनका अचार डालकर सदा अपने पास मत रखिए (ये शब्द मेरे हैं, मूल विचार वही है)।

सदा वर्तमान में रहिए, अतीत को संदर्भ के लिए और भविष्य को यदा-कदा चुनौतियों के लिए झांककर देख लीजिए, लेकिन सदा रहिए वर्तमान में, जिस प्रकार बच्चे के आंसू भी नहीं सूखे होते और वह खिलखिलाकर हंसने लगता है, वैसा स्वभाव बनाइए।

जहाँ तक सिद्धांतों की बात है, कुछ बातें जिस रूप में मुझे याद रहीं, मैंने बताईं। निःसंदेह मेरी इन विचारों में पूरी आस्था है और अपनी तरफ से मैं ऐसा करने का प्रयास करता ही हूँ, लेकिन समय-समय पर इन बातों को याद कर लेना अच्छी बात है।

जहाँ तक शिविर की अन्य गतिविधियों की बात है, इनका मुख्य उद्देश्य सांस पर नियंत्रण करके, अपने शरीर की अवस्थाओं पर नियंत्रण करना, उनको पुष्ट बनाना होता है। एक उदाहरण इसका काफी पहले किसी ने दिया था,कि जब आप लंबा चलकर आते हैं या कई थकान वाला काम करते हैं, तो आपकी सांस फूल जाती है। जिस प्रकार आपके शरीर की अव्यवस्था से सांस अव्यवस्थित हो जाती है, यदि आप सांस को व्यवस्थित कर लें तो शरीर की स्थिति भी व्यवस्थित हो जाएगी।

शिविर में यह बताया जाता है कि हम अपने फेफड़ों का कुशलतापूर्वक प्रयोग नहीं करते और बहुत कम इस्तेमाल करते हैं। अधिक प्रभावी तरीके से श्वसन के तरीके इन शिविरों में सिखाए जाते हैं, जो काफी उपयोगी हैं। मुझे यह भी मालूम हुआ कि सभी शहरों में इनके बहुत से केंद्र नियमित रूप से चलते हैं। मैं समझता हूँ कि जहाँ तक ये लोगों के शरीर एवं मन से स्वस्थ बने रहने में सहायक हों, बहुत अच्छी बात है।

मुझे किसी लेखक का लिखा एक अनुभव याद आ रहा है, किसी अन्य देश के बारे में उन्होंने लिखा था कि वे किसी पार्क में एक बेंच पर बैठे थे। तभी वहाँ एक युवती आई और वह अचानक नाचने लगी, कुछ देर नाची और फिर वापस चली गई। यह सहज प्रसन्नता, आंतरिक खुशी, वे बता रहे थे कि उस देश में शायद लोग सहज रूप से प्रसन्न हैं।

जैसा इस शिविर में बताया गया, बच्चे सहज रूप से प्रसन्न रहते हैं, चलते-चलते उछलने लगते हैं, लहराकर चलने लगते हैं, ऐसा अगर बड़े लोग सहज रूप से कर पाएं तो कितनी अच्छी बात है।
एक दो बातें जो मुझे वहाँ बहुत अच्छी लगीं, शुरू में ही उन्होंने कराया कि आप कुछ लोगों के पास जाएं, उनको अपना नाम बताएं और कहें कि मैं आपका/आपकी हूँ (आय बिलोंग टू यू), इतना सहज लोगों को स्वीकारना बहुत अच्छी बात है।

एक और गतिविधि जो मुझे शायद सबसे अच्छी लगी, उन्होंने पूरे बड़े हॉल में लोगों से कहा कि आप आंखें बंद करके नाचिये,वहाँ मधुर संगीत बज रहा था और कहा गया कि मान लीजिए कि यहाँ आपके अलावा कोई नहीं है। यह अनुभव वास्तव में विलक्षण था। शायद हमारे मन के मुक्त अवस्था में आने के बीच में, बहुत बड़ी बाधा यही होती है कि लोग देख रहे हैं। इस बाधा पर अगर हम विजय पा लें, तो बहुत बड़ी बात होगी।

मुझे लगा कि आज इन अनुभवों को बांटना चाहिए, तो लीजिए मैंने मुक्त मन से यह काम कर लिया।

नमस्कार।