202. हम अपने बुज़ुर्गों का ज़माना नहीं भूले!

आज एक छोटी सी गज़ल सागर आज़मी जी की लिखी हुई शेयर करने का मन हो रहा है, जिसे जगजीत सिंह जी ने गाया है। आज जबकि ऐसा माहौल है कि लोग किसी न किसी बहाने से नफरत फैलाने के काम में लगे हैं, इस प्रकार की गज़लें, कविताएं अच्छा संदेश देती हैं।
इसमें उन पुराने मूल्यों, परंपराओं की याद दिलाई गई है कि हर किसी से, यहाँ तक कि जो खुद को आपका दुश्मन मानता है उससे भी प्यार किया जाए। लीजिए प्रस्तुत है यह गज़ल-

दुश्मन को भी सीने से लगाना नहीं भूले,
हम अपने बुजुर्गों का ज़माना नहीं भूले।

तुम आँखों की बरसात बचाये हुए रखना,
कुछ लोग अभी आग लगाना नहीं भूले।

ये बात अलग हाथ कलम हो गये अपने,
हम आप की तस्वीर बनाना नहीं भूले।

इक उम्र हुई मैं तो हँसी भूल चुका हूँ,
तुम अब भी मेरे दिल को दुखाना नहीं भूले।

                                                                   – सागर आज़मी

और इसके बाद दो शेर और याद आ रहे हैं, डॉ. बशीर बद्र जी के –

दुश्मनी जमकर करो लेकिन ये गुंजाइश रहे,
जब कभी हम दोस्त बन जाएं तो शर्मिंदा न हों।
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दुश्मनी का सफर इक क़दम दो क़दम,
तुम भी थक जाओगे, हम भी थक जाएंगे।

आज के लिए इतना ही, नमस्कार।
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