70. अस्पताल की टूटी टांग!

आज स्वास्थ्य और इस बहाने स्वास्थ्य सेवाओं के बारे में बात करेंगे।

वैसे तो मुझे लगता है कि आज की तारीख में हिंदुस्तान में, और शायद दुनिया में, कोई बीमारी होनी ही नहीं चाहिए। अब लोग ‘फॉलो’ न करें तो अलग बात है वरना सोशल मीडिया पर, दुनिया में जितनी भी तक़लीफें या बीमारियां हैं, उनमें से प्रत्येक के लिए कम से कम दस इलाज तो सेवाभावी लोगों द्वारा दे दिए जाते हैं।

अब मैं अपनी सारी बीमारियों के बारे में तो चर्चा नहीं करूंगा, लेकिन एक बात है कि मेरा वज़न लगातार बढ़ता जा रहा है और शुगर की तकलीफ भी है, लेकिन मैं कितना अविश्वासी प्राणी हूँ कि हर दिन परोपकारी जीव, सोशल मीडिया पर ऐसे शर्तिया उपाय बताते हैं, जिनसे मोटापा तेज़ी से घटता है और आपका फैट, आइसक्रीम की तरह पिघल जाता है, शुगर जड़ से मिट जाती है, लेकिन मैंने शुरू में तो एक- दो उपाय आज़माए पर उसके बाद ऐसा करना बंद कर दिया। अब ऐसा थोड़े ही होता है, बाबा रामदेव भी कहते हैं कि करने से होगा! लेकिन दिक्कत ये है कि कंपीटीशन चल रहा है, इधर बीमारियां बढ़ रही हैं और उधर चौगुनी रफ्तार से, सोशल मीडिया पर उनके इलाज बढ़ रहे हैं।

सोशल मीडिया पर जो इलाज बताए जाते हैं, उनको अक्सर लोग बड़ी श्रद्धा से पढ़ते हैं, फिर बीमारियां और मोटापे जैसी सामान्य विकृतियां क्यों बढ़ती जा रही हैं।

बीमारी अपनी जगह है लेकिन मेरी डॉक्टरों और अस्पतालों में ज्यादा श्रद्धा नहीं रही है, जब मज़बूरी हो जाती है, सामान्यतः तभी मैं अस्पताल जाता हूँ। इससे पहले मैं गुड़गांव में था, जहाँ मेदांता, आर्टिमिस,पारस, फोर्टिस आदि अंतर्राष्ट्रीय स्तर के माने जाने वाले अस्पताल हैं, वहाँ डॉक्टरों की संख्या भी अच्छी खासी है, लेकिन उनके पास फुर्सत नहीं होती, लंबे इंतज़ार के बाद जब मरीज़ का नंबर आता है, तब वरिष्ठ चिकित्सक उससे कहते हैं कि वह जल्दी से अपनी तकलीफ बताए, जिससे वे यह तय कर सकें कि इसके कौन-कौन से टेस्ट किए जा सकते हैं, वरिष्ठ चिकित्सक महोदय के आस-पास कुछ शिष्य-शिष्याएं भी अक्सर बैठे रहते हैं, जिनको वे समझाते हैं कि रोगी को किस प्रकार टहलाना है।

अक्सर यह भी होता है कि पहले दौर के परीक्षणों के बाद उनको याद आता है कि कुछ और टेस्ट कराए जा सकते हैं, विशेष रूप से यदि उनको पता हो कि मरीज़ के इलाज का खर्च कोई माली कंपनी अथवा हेल्थ इंश्योरेंस वाले देखते हैं। मुझे याद है कि मैंने दो-तीन वर्ष पहले अपनी आंखों का केटेरेक्ट का ऑपरेशन, गुड़गांव के एक नेत्र-चिकित्सक से अपोलो में कराया, क्योंकि उन चिकित्सक के यहाँ ऑपरेशन कराने पर मेरी कंपनी पैसा नहीं देती। नतीज़ा यह हुआ कि प्रत्येक आंख के लिए जो ऑपरेशन 35-40 हजार में होना था, उसका खर्च एक लाख से ऊपर आया।

मैं यह बात जिस कारण से कर रहा हूँ, वह ये है कि गोआ आने के बाद मैंने यहाँ के एक अस्पताल में डॉक्टर को दिखाया, मुझे लगा कि यहाँ के चिकित्सक के पास मरीज़ की बातें ध्यान से सुनने के लिए समय था, यहाँ जो टेस्ट उन्होंने कराए वे महंगे भी नहीं थे और प्रासंगिक भी लगे और मुझे लगा कि उनके माध्यम से चिकित्सक महोदय सही निष्कर्ष पर पहुंच पाए।

अब यह भी है कि नई जगह पर शुरू में सब कुछ अच्छा लगता है, लेकिन यहाँ पर वह मैट्रो नहीं है, बाहर जाने के लिए उस तरह के साधन नहीं हैं, हालांकि जाने के लिए ‘बीच’ बहुत सारी हैं, जहाँ दुनिया भर से लोग आते हैं, लेकिन अगर आप स्वयं वाहन नहीं चलाते हैं तो ऑटो-टैक्सी आदि मिलना वैसे तो रिहायशी इलाकों में मुश्किल है और फिर मिलने पर वह कितना पैसा मांग ले, इसकी कोई सीमा नहीं है।

खैर आज स्वास्थ्य, उसके लिए सोशल मीडिया पर मिलने वाले नुस्खों और स्वास्थ्य सेवाओं के संबंध में हल्की-फुल्की चर्चा करनी थी, सो मुझे लगता है, फिलहाल के लिए काफी हो गई।

अब शीर्षक के बारे में ज्यादा मत सोचिए, ओम प्रकाश आदित्य जी की एक कविता का शीर्षक था यह, सो मैंने भी ‘टीप’ लिया।

नमस्कार।