82. कल और आएंगे, नगमों की खिलती कलियां चुनने वाले!

आज फिर से प्रस्तुत है, एक और पुरानी ब्लॉग पोस्ट, कवियों, साहित्यकारों और राजनीतिज्ञों को हल्का सा स्पर्श करते हुए-

अज्ञेय जी की एक कविता है-‘नए कवि से’, काफी लंबी कविता है, उसका कुछ हिस्सा यहाँ उद्धृत कर रहा हूँ-

आ, तू आ, हाँ, आ,
मेरे पैरों की छाप-छाप पर रखता पैर,
मिटाता उसे, मुझे मुँह भर-भर गाली देता-
आ, तू आ।

तेरा कहना है ठीक: जिधर मैं चला
नहीं वह पथ था:
मेरा आग्रह भी नहीं रहा मैं चलूँ उसी पर
सदा जिसे पथ कहा गया, जो
इतने-इतने पैरों द्वारा रौंदा जाता रहा कि उस पर
कोई छाप नहीं पहचानी जा सकती थी।

मेरी खोज नहीं थी उस मिट्टी की
जिस को जब चाहूँ मैं रौंदूँ: मेरी आँखें
उलझी थीं उस तेजोमय प्रभा-पुंज से
जिस से झरता कण-कण उस मिट्टी को
कर देता था कभी स्वर्ण तो कभी शस्य,
कभी जीव तो कभी जीव्य,
अनुक्षण नव-नव अंकुर-स्फोटित, नव-रूपायित।

मैं कभी न बन सका करुण, सदा
करुणा के उस अजस्र सोते की ओर दौड़ता रहा जहाँ से
सब कुछ होता जाता था प्रतिपल——

कविता का इतना ही भाग यहाँ दूंगा अन्यथा बहुत ज्यादा हो जाएगा। अज्ञेय जी कवि थे, महान रचनाकार थे, सो वे अपने बाद के रचनाकारों को संबोधित कर रहे थे। कह रहे थे कि सृजन के इस पथ पर, नई राहों के अंवेषी के रूप में, उनसे जो बन पड़ा उन्होंने किया, अब नए रचनाकार की बारी है कि वह अपने झंडे गाड़े, अपनी रचनाधर्मिता का लोहा मनवाएं।

साहित्य का क्षेत्र हो, पत्रकारिता का या कोई भी क्रिएटिव फील्ड हो, हर क्षेत्र में कितने महारथी आए, उन्होंने अपने कृतित्व से लोगों को चमत्कृत किया और फिर पताका नए लोगों के हाथों में सौंपकर आगे बढ़ गए। आज खयाल आया कि रचनाधर्मिता की इस अनंत यात्रा को सलाम करूं, क्योंकि जो ऊंचाई एक तारीख में एक मिसाल होती है वही कभी बहुत छोटी लगने लगती है, ऐसे में कुछ लोग हैं जो हमेशा नए लोगों के लिए चुनौती और प्रेरणा बने रहते हैं।
हालांकि एक क्षेत्र ऐसा भी है- राजनीति का, जहाँ बहुत से लोग पूरी तरह अपनी चमक खो देते हैं-

जो आज रौनक-ए-महफिल दिखाई देता है,
नए लिबास में क़ातिल दिखाई देता है।

खैर आज की चर्चा का विषय यह नहीं है। आज तो इस चर्चा का समापन साहिर लुधियानवी जी की इन पंक्तियों से करना सर्वथा उपयुक्त होगा-

कल और आएंगे नगमों की खिलती कलियां चुनने वाले,
मुझसे बेहतर कहने वाले, तुमसे बेहतर सुनने वाले,
कल कोई मुझको याद करे, क्यों कोई मुझको याद करे,
मसरूफ ज़माना मेरे लिए, क्यों वक्त अपना बर्बाद करे।
मैं पल दो पल का शायर हूँ——

कुल मिलाकर शायरों, कलाकारों की यह परंपरा, जिसमें भले ही कोई किसी समय विशेष कालखंड में ही सृजनरत रहा हो, लेकिन यह निरंतर चलने वाली परंपरा हमारी महान धरोहर है।

इस परंपरा को प्रणाम करते हुए आज यहीं समापन करते हैं।
नमस्कार।


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