94. मैं अपने साये से कल रात डर गया यारो!

एक बार फिर से पुरानी ब्लॉग पोस्ट, बस शीर्षक लाइन बदल दी है-

आज शहरयार जी की एक गज़ल के बहाने आज के हालात पर चर्चा कर लेते हैं। इससे पहले दुश्यंत जी के एक शेर को एक बार फिर याद कर लेता हूँ-

इस शहर में वो कोई बारात हो या वारदात

अब किसी भी बात पर खुलती नहीं हैं खिड़कियां।

आज की ज़िंदगी इतनी आपाधापी से भरी हो गई है कि किसी के पास, किसी के लिए बिल्कुल टाइम नहीं है। खास तौर जीवित या जीवन से जूझ रहे व्यक्ति के लिए तो बिल्कुल नहीं है। ये बात बड़े शहरों पर तो विशेष रूप से लागू होती है।

बहुत बार देखा है कि कोई व्यक्ति दुर्घटना का शिकार हो गया हो और जीवन और मृत्यु के बीच झूल रहा हो, तब लगभग सभी लोग उसकी तरफ एक बार देखकर आगे बढ़ जाते हैं। इतना ही नहीं लोगों के सामने कोई किसी को चाकू मार दे तब भी कोई उसको बचाने के लिए आगे नहीं बढ़ता, और उसके बाद उसे चिकित्सा सुविधा दिलाने के लिए भी नहीं। ऐसे में लोगों को अपने अर्जेंट काम याद आ जाते हैं या ड्यूटी के लिए देर होने लगती है। जो लोग ऐसे में सहायता के लिए आगे बढ़ते हैं, वे वास्तव में सराहना के पात्र हैं और आज के समय में इंसानियत के जीवित होने की मिसाल हैं।

इसके विपरीत जब कोई लाश दिखाई दे जाती है, तब लोग घंटों वहाँ खड़े रहते हैं, पता करते रहते हैं, कौन था, कहाँ का था, क्या हुआ था । ऐसे में लोगों को कोई काम याद नहीं आता, कोई जल्दी नहीं होती।

खास तौर पर नेताओं को ऐसी लाशों की तलाश रहती है, जिनको झंडे की तरह इस्तेमाल किया जा सके। जिनको लेकर किसी पर इल्ज़ाम लगाए जा सकें। भुखमरी, कानून व्यवस्था की बदहाली, किसी भी मामले को जोरदार ढंग से उठाया जा सके। ऐसे मामले भी सामने आए हैं, जब लोगों ने किसी को आत्महत्या करने के लिए मानसिक रूप से तैयार किया, जिससे बाद में उस पर राजनीति की जा सके।

शायद यही कारण है कि, औद्योगिक अशांति की स्थिति में भी मैंने देखा है कि जब लोग कोई लाश बीच में रखकर आंदोलन करना चाहते हैं, तब पुलिस वालों का प्रयास यह होता है कि सबसे पहले किसी तरह समझा-बुझाकर, लाश को वहाँ से हटाया जाए वरना आंदोलन लंबा चल सकता है।

खैर इन सब बातों पर ज्यादा चर्चा किए बिना, शहरयार जी की वह गज़ल यहाँ दे रहा हूँ, जिसे हरिहरन जी ने गाया है, ‘गमन’ फिल्म के लिए। मैंने जितना कुछ ऊपर लिखा है, उससे कहीं ज्यादा बात ये गज़ल अपने आप में कह देती है-

अजीब सानेहा मुझ पर गुज़र गया यारो

मैं अपने साये से कल रात डर गया यारो।

हर एक नक़्श तमन्ना का हो गया धुंधला,

हर एक ज़ख्म मेरे दिल का भर गया यारो।

भटक रही थी जो कश्ती वो गर्क-ए-आब हुई

चढ़ा हुआ था जो दरिया उतर गया यारो।

वो कौन था, वो कहाँ का था, क्या हुआ था उसे,

सुना है आज कोई शख्स मर गया यारो।

नमस्कार।


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