99. जार्जेट के पल्ले सी, दोपहर नवंबर की!

आज फिर से प्रस्तुत है, एक और पुरानी ब्लॉग पोस्ट-

बहुत बार लोग कविता लिखते हैं मौसम पर, कुछ कविताएं बहुत अच्छी भी लिखी जाती हैं। तुलसीदास जी ने, जब रामचंद्र जी, माता सीता की खोज में लगे थे, उस समय ऋतुओं के बदलने का बहुत सुंदर वर्णन किया है। पूरा मनोविज्ञान भरा है उस भाग में, जहाँ वे वर्षा में छोटे नदी-नालों के उफन जाने का वर्णन करते हैं- ‘थोरे में जनु खल इतराहीं’ और वर्षा के बाद ‘वर्षा गई शरद ऋतु आई। वह सब हमारी धरोहर है।

जैसा मैंने कहा, मौसम पर तो बहुत सी कविताएं लिखी गई हैं, डॉ. धर्मवीर भारती की एक कविता है, जो मौसम की कह सकते हैं, परंतु इसमें मौसम को एक महीने के बहाने से व्यक्त किया गया है।  वैसे यह मौसम भी भीतर का है। नवंबर का महीना, जब दोपहर की धूप अच्छी लगने लगती है, हिंदुस्तान में, खासकर उन इलाकों में, जहाँ गर्मी बहुत पड़ती है।

यह अलग तरह की कविता है, जैसे कोई कविता किसी एक भाव से भरपूर होती है, ये मांसलता से भरपूर है, वैसे वह भी कविता का एक भाग है।

आज यही कविता शेयर करने का मन है, लीजिए प्रस्तुत है-

अपने हलके-फुलके उड़ते स्पर्शों से मुझको छू जाती है
जार्जेट के पीले पल्ले-सी यह दोपहर नवम्बर की !

आयी गयी ऋतुएँ पर वर्षों से ऐसी दोपहर नहीं आयी
जो क्वाँरेपन के कच्चे छल्ले-सी
इस मन की उँगली पर
कस जाये और फिर कसी ही रहे
नित प्रति बसी ही रहे, आँखों, बातों में, गीतों में
आलिंगन में घायल फूलों की माला-सी
वक्षों के बीच कसमसी ही रहे
भीगे केशों में उलझे होंगे थके पंख
सोने के हंसों-सी धूप यह नवम्बर की
उस आँगन में भी उतरी होगी
सीपी के ढालों पर केसर की लहरों-सी
गोरे कंधों पर फिसली होगी बन आहट
गदराहट बन-बन ढली होगी अंगों में
आज इस वेला में
दर्द ने मुझको
और दोपहर ने तुमको
तनिक और भी पका दिया
शायद यही तिल-तिल कर पकना रह जायेगा
साँझ हुए हंसों-सी दोपहर पाँखें फैला
नीले कोहरे की झीलों में उड़ जायेगी
यह है अनजान दूर गाँवों से आयी हुई
रेल के किनारे की पगडण्डी
कुछ क्षण संग दौड़-दौड़
अकस्मात् नीले खेतों में मुड़ जायेगी।

एक अलग तरह की कविता है, जिसमें भीतर के और बाहर के मौसम को, एक महीने ‘नवंबर की दोपहर’ के बहाने व्यक्त किया गया है। अब इसके बारे में अलग से तो कुछ कहने की ज़रूरत नहीं है। कविता जितना बोलती है उतना मैं कहाँ बोल पाऊंगा।

नमस्कार।
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