126. कहती टूटी दीवट, सुन री उखड़ी देहरी!

आज फिर से प्रस्तुत है एक पुरानी ब्लॉग पोस्ट-

आज एक खबर कहीं पढ़ी कि उत्तराखंड के किसी गांव में केवल बूढ़े लोग रह गए हैं, विशेष रूप से महिलाएं, जवान लोग रोज़गार के लिए शहरों को पलायन कर गए हैं।

वैसे यह खबर नहीं, प्रक्रिया है, जो न जाने कब से चल रही है, गांव से शहरों की ओर तथा नगरों, महानगरों से विदेशों की तरफ! जहाँ गांव में बूढ़े लोग हैं, लेकिन जैसा भी हो, उनका समाज है वहाँ पर, शहरों में बहुत से बूढ़े लोग फ्लैट्स में अकेले पड़े हैं, जिनका कोई सामाजिक ताना-बाना भी नहीं है, ऐसे में कृत्रिम ताना-बाना भी बनाया जाता है, जैसे ‘ओल्ड एज होम’, लॉफिंग क्लब आदि, ये जहाँ काम दें, अच्छा ही है। वरना बहुत सी बार कोई मर जाता है, तब पता चलता कि वह अकेला रह रहा था।

मेरे एक वरिष्ठ मित्र थे- श्री शर्मा जी, जिन्होंने ग्रामीण परिवेश पर कुछ बहुत सुंदर गीत लिखे हैं। उनकी दो पंक्तियां याद आ रही हैं-

ना वे रथवान रहे, ना वे बूढ़े प्रहरी,
कहती टूटी दीवट, सुन री उखड़ी देहरी।

मैंने भी बहुत पहले, निर्जन होते जा रहे गांवों को लेकर एक कविता लिखी थी-

गांव के घर से

बेखौफ चले आइए
यहाँ अभी भी कुछ लोग हैं।

घर की दीवारों पर जो स्वास्तिक चिह्न बने हैं,
इन्हीं पर कई बार टूटी हैं चूड़ियां,
टकराए हैं माथे।
कभी यह एक जीवंत गांव था,
लेकिन आज, हर जीवित गंध- एक स्मारक है,
जमीन का हर टुकड़ा, लोगों की गर्दन पर गंडासा है।

धुएं का आकाश रचती चिमनियां, और यंत्र संगीत,
न जाने कहाँ उड़ा ले गया- उन गंध पूरित लोगों को।
एक, शहर में- सही गलत का वकील है,
पड़ौस को उससे बड़ी उम्मीदें हैं।
(श्रीकृष्ण शर्मा)

वीरान होते गांवों को लेकर अपनी यह पुरानी कविता मुझे याद आई, कहीं लिखकर नहीं रखी है और यहाँ प्रस्तुत करते समय, कहीं-कहीं से रिपेयर करनी पड़ी।

आखिर में पंकज उदास का गाया एक गीत याद आ रहा है, कमाई के लिए घर से दूर, विदेशों में अकेले रहने वालों को लेकर यह बहुत सुंदर गीत है, इसकी कुछ पंक्तियां ही यहाँ शेयर करूंगा-

चिट्ठी आई है, आई है चिट्ठी आई है।
बहुत दिनों के बाद, हम बे-वतनों को याद,
वतन की मिट्टी आई है।

वैसे तो इस गीत का हर शब्द मार्मिक है, मैं केवल अंतिम छंद यहाँ दे रहा हूँ-

पहले जब तू ख़त लिखता था, कागज़ में चेहरा दिखता था,
बंद हुआ ये मेल भी अब तो, खत्म हुआ ये खेल भी अब तो,
डोली में जब बैठी बहना, रस्ता देख रहे थे नैना,
मैं तो बाप हूँ मेरा क्या है, तेरी मां का हाल बुरा है,
तेरी बीवी करती है सेवा, सूरत से लगती है बेवा,
तूने पैसा बहुत कमाया, इस पैसे ने देश छुड़ाया,
पंछी पिंजरा तोड़ के आजा, देश पराया छोड़ के आजा,
आजा उमर बहुत है छोटी, अपने घर में भी है रोटी।
चिट्ठी आई है, आई है चिट्ठी आई है।

ये गीत उन लोगों के लिए विशेष रूप से महत्वपूर्ण है, जो जैसे-तैसे काम-धंधे के लिए चले तो जाते हैं, लेकिन जब चाहें तब घर मिलने के लिए नहीं आ सकते।

अब इसके बाद क्या कहूं!

नमस्कार।
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2 responses to “126. कहती टूटी दीवट, सुन री उखड़ी देहरी!”

  1. True, people migrate from a place of lesser opportunity to one with greater opportunity. If we can make our villages attractive and livable people will not migrate. In developed countries, we hardly see much migration.Because population is satisfied where they are.

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  2. Very true, with expansion of families there are less and less fields left with individual families, some other opportunities are needed to be developed there. It was mentioned in the land acquisition bill proposed but politics did not let it move further.

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