18. ज़िंदगी के हाथों में, कौन सा निवाला है!

चलिए पुराने पन्ने पलटते हुए, एक क़दम और आगे बढ़ते हैं। एक और पुरानी ब्लॉग पोस्ट-

दिल्ली से जाल समेटने से पहले, कुछ और बातें कर लें। वैसे तो रोज़गार की मज़बूरियां हैं वरना कौन दिल्ली की गलियां छोड़कर जाता है। वैसे भी यह तो अतीत की बात है, मैं इसे कैसे बदल सकता हूँ? अगर बदल सकता तो कुछ और बदलता, जो मैं पहले लिख चुका हूँ।

कुछ छिटपुट घटनाएं जो ऐसे में याद आती हैं, उनमें एक है वह कवि गोष्ठी, जिसमें स्व.भवानी प्रसाद मिश्र जी का कविता पाठ था, पहली बार उनको आमने-सामने सुनने का अवसर मिला, उनकी अनेक कविताएं और कविता के बारे में उनके विचार जानने का अवसर मिला। मुझे भी उनके सामने एक रचना के पाठ का अवसर मिला। मेरी कविता सुनकर भवानी दादा ने कहा- ‘आदमी समझदार लगते हो’, मेरे लिए उनके ये बोल ही बहुत बड़ा आशीर्वाद थे।

एक बुज़ुर्ग कवियित्री थीं- श्रीमती इंदुमती कौशिक, बहुत श्रेष्ठ रचनाकार थीं। मुझे लगता है, उनको वह मान-सम्मान नहीं मिल पाया, जिसकी वह पात्र थीं। पहली बार उनकी रचना- शहीद वंदना, लाल किले के कवि सम्मेलन में सुनी थी, जिसने मेरे मन पर अमिट छाप पड़ी थी। बाद में अनेक बार उनसे मिलने और उनकी रचनाएं सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।

आम आदमी की स्थिति को व्याकरण के माध्यम से दर्शाने वाली उनकी एक रचना है-

ना तो संज्ञा हैं हम ना विशेषण
बस यही व्याकरण है हमारा।

सिर्फ विन्यास की क्या समीक्षा
व्यक्ति हैं, पाठ्यक्रम तो नहीं हैं।
आपकी मान्यताओं से हटकर
कुछ अलग आचरण है हमारा।

एक और बहुत श्रेष्ठ रचना है उनकी-
टांग दूं अरगनी पर, अनधुली उदासी मैं,
आज अपने आंगन में, धूप है, उजाला है,
एक साथ ओढ़ूंगी, सात रंग सूरज के,
तार-तार पैराहन, ओस में उबाला है।

इसी रचना में आगे पंक्तियां हैं-

भूख मिट नहीं सकती, पेट भर नहीं सकता
ज़िंदगी के हाथों में, कौन सा निवाला है।

एक और रचना की पंक्ति है-

हमने जिस कोमल कोने में अपना कक्ष चिना,
उसने अपनी ईंट-ईंट को, सौ-सौ बार गिना।

अंत में उनका प्रतिनिधि गीत शहीद वंदना, जो उनकी पहचान रहा है और मुझे अत्यंत प्रिय है-

जो अंधेरों में जलते रहे उम्र भर,
आपको दे गए भोर की नवकिरण,
आइए इस महापर्व पर हम करें
उन शहीदों की ज़िंदा लगन को नमन।

वो जिए इस तरह, वो मरे इस तरह,
ज़िंदगी-मौत दोनों सुहागिन हुईं,
ज़िंदगी को उढ़ाई धवल चूनरी,
मौत को दे गए रक्त-रंजित कफन।

हड्डियां पत्थरों की जगह चिन गईं,
तब कहीं ये इमारत बनी देश की,
आपके हाथ में सौंपकर चल दिए
ये सजग राजपथ, ये सजीला सदन।

अब यहाँ स्वार्थ हैं और टकराव हैं,
सिर्फ भटकाव हैं और बिखराव हैं,
आज के दौर में बोलिए तो ज़रा
कौन है जो करे आग का आचमन।

आइए मिलके सोचें ज़रा आज हम
हमको क्या-क्या मिला, हमने क्या खो दिया,
वक्त की हाट में वरना बिक जाएंगे,
रत्नगर्भा धरा के सजीले रतन॥

दिल्ली में पहले प्रवास का यह अंतिम विवरण, स्व. इंदुमती कौशिक जी की स्मृतियों को समर्पित है।

जैसा मैंने पहले बताया उद्योग मंत्रालय के बाद मैं 3 साल तक संसदीय राजभाषा समिति में, तीन मूर्ति मार्ग पर कार्यरत रहा। इस बीच श्री संजय गांधी की विमान दुर्घटना में मृत्यु हो गई, तब मैं भी श्रीमती गांधी के आवास पर देखने चला गया था, वहाँ श्री मनोज कुमार आए थे और मुझे लगभग धकेलते हुए निकल गए थे। बहुत हैंडसम हुआ करते थे उस समय, आज उनकी हालत देखकर समय की शक्ति का एहसास होता है।

इस बीच मेरे निजी जीवन में ऐसा हुआ कि मेरा विवाह हुआ और एक बच्चा, मेरा बड़ा बेटा भी दिल्ली में जन्म ले चुका था। हमने 16 रु. महीने वाला पुराना घर छोड़ दिया था,लालटेन का साथ भी काफी पहले छूट चुका था। अब तो हम जयपुर जाने की तैयारी में थे।

बातें तो चलती ही रहेंगी, अभी इतना ही।

नमस्कार।

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