मैंने समुद्र में अपना जाल फेंका  

आज मैं फिर से भारत के नोबल पुरस्कार विजेता कवि  गुरुदेव रवींद्र नाथ ठाकुर की एक और कविता का अनुवाद प्रस्तुत कर रहा हूँ। यह उनकी अंग्रेजी भाषा में प्रकाशित जिस कविता का भावानुवाद है, उसे अनुवाद के बाद प्रस्तुत किया गया है। मैं अनुवाद के लिए अंग्रेजी में मूल कविताएं सामान्यतः ऑनलाइन उपलब्ध काव्य संकलन- ‘PoemHunter.com’ से लेता हूँ। लीजिए पहले प्रस्तुत है मेरे द्वारा किया गया उनकी कविता ‘I Cast My Net Into The Sea’ का भावानुवाद-

गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर की कविता 

मैंने समुद्र में अपना जाल फेंका

 

प्रातःकाल मैंने समुद्र में अपना जाल फेंका।

मैंने उस अंधेरे समुद्रतल से ऐसी अनोखे स्वरूप और दिव्य सौंदर्य वाली                                         वस्तुएं घसीटकर निकालीं- जिनमें से कुछ चमकती थीं,                        मुस्कान की तरह,   कुछ झिलमिला रही थीं –  अश्रुओं की तरह,                                और कुछ दमक रही थीं,  नववधू के कपोलों की तरह।

दिन भर में एकत्रित बोझ के साथ, जब मैं अपने घर गया,                                        मेरी प्रेयसी बगीचे में अकेली बैठी, फूल की पंखुड़ियां नोच रही थी।

मैं संकोचवश एक क्षण के लिए ठिठक गया,                                                    और फिर मैंने वह संग्रह, जो घसीटकर लाया था, वह उसके कदमों में डाल दिया,                                       और शांत खड़ा हो गया।

उसने उन पर एक निगाह डाली और बोली, ‘ये क्या अजीब चीजें हैं?                                मुझे  नहीं मालूम कि ये किस काम आती हैं!’

मैंने शर्म से सिर झुका लिया और सोचा,                                                         ‘ मैंने इनके लिए संघर्ष नहीं किया है, बाजार से खरीदा भी नहीं इनको,                                ये सब उसको देने के लिए उचित उपहार नहीं हैं।’

और फिर पूरी रात, मैं उनको एक-एक करके मार्ग पर फेंकता रहा।

सुबह हुई, बहुत से यात्री उधर से निकले, उन्होंने उनको उठाया                                        और अपने साथ दूर-दराज के देशों में ले गए।

      -रवींद्रनाथ ठाकुर                                                              

और अब वह अंग्रेजी कविता, जिसके आधार मैं भावानुवाद प्रस्तुत कर रहा हूँ- 

 

I Cast My Net Into The Sea

In the morning I cast my net into the sea.

I dragged up from the dark abyss things of strange aspect and strange beauty — some shone like a smile, some glistened like tears, and some were flushed like the cheeks of a bride.

When with the day’s burden I went home, my love was sitting in the garden idly tearing the leaves of a flower.

I hesitated for a moment, and then placed at her feet all that I had dragged up, and stood silent.

She glanced at them and said, ‘What strange things are these? I know not of what use they are!’

I bowed my head in shame and thought, ‘I have not fought for these, I did not buy them in the market; they are not fit gifts for her.’

Then the whole night through I flung them one by one into the street.

In the morning travellers came; they picked them up and carried them into far countries.

  -Rabindranath Tagore

 

नमस्कार।

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