मेरे महबूब कहीं और मिला कर मुझसे!

आज फिर से एक ऐसा विषय जिस पर युग-युगों से चर्चा होती रही है, कार्रवाई होती रही है। फिल्म- ‘मिलन’ का एक युगल गीत है- ‘हम तुम, युग-युग से ये गीत मिलन के गाते रहे हैं, गाते रहेंगे’। जी हाँ प्रेम, जो वैसे तो पूरी दुनिया को बांधता है, दुनिया का सार प्रेम ही है, अगर प्रेम नहीं रहेगा तो दुनिया भी नहीं रहेगी!

लेकिन जो प्रेम हमारे साहित्य में, कविताओं और गीतों में महत्वपूर्ण स्थान पाता है, फिल्में अक्सर इसी पर आधारित रहती हैं, वो है प्रेमी-प्रेमिका, आशिक़-महबूबा वाला प्रेम!

मैं ज्यादा लंबा भाषण नहीं दूंगा, ताज महल को प्रेम की खूबसूरत निशानी माना गया है और उसी को लेकर साहिर लुधियानवी जी ने एक बहुत सुंदर नज़्म लिखी थी जिसको किसी रूप में एक फिल्म में भी लिया गया था। इस नज़्म में साहिर लुधियानवी कहते हैं कि ताजमहल प्रेम की नहीं राजसत्ता के ऐश्वर्य की निशानी है, यह गरीब प्रेमियों का मजाक उड़ाता है।

खैर यह भी विचारणीय है, लीजिए प्रस्तुत है साहिर लुधियानवी जी की यह नज़्म-

 

ताज तेरे लिए इक मज़हर-ए-उलफत ही सही,
तुम को इस वादी-ए-रँगीं से अक़ीदत ही सही,
मेरे महबूब कहीं और मिला कर मुझसे।

बज़्म-ए-शाही में ग़रीबों का गुजर क्या मानी,
सब्त जिस राह पे हों सतवत-ए-शाही के निशाँ,
उस पे उलफत भरी रूहों का सफर क्या मानी।
मेरी महबूब पस-ए-पर्दा-ए-तशरीर-ए-वफ़ा
तूने सतवत के निशानों को तो देखा होता,
मुर्दा शाहों के मक़ाबिर से बहलने वाली,
अपने तारीक़ मक़ानों को तो देखा होता।

अनगिनत लोगों ने दुनिया में मुहब्बत की है,
कौन कहता है कि सादिक़ न थे जज़्बे उनके,
लेकिन उनके लिये तश्शीर का सामान नहीं,
क्यूँकि वो लोग भी अपनी ही तरह मुफ़लिस थे,
ये इमारत-ओ-मक़ाबिर, ये फ़ासिले, ये हिसार,
मुतल-क़ुलहुक्म शहँशाहों की अज़्मत के सुतून,
दामन-ए-दहर पे उस रँग की गुलकारी है,
जिसमें शामिल है तेरे और मेरे अजदाद का ख़ून।

मेरे महबूब!उन्हें भी तो मुहब्बत होगी,
जिनकी सानाई ने बक़शी है इसे शक़्ल-ए-जमील,
उनके प्यारों के मक़ाबिर रहे बेनाम-ओ-नमूद,
आज तक उन पे जलाई न किसी ने क़ंदील।

ये चमनज़ार ये जमुना का किनारा, ये महल,
ये मुनक़्कश दर-ओ-दीवार, ये महराब ये ताक़,
इक शहंशाह ने दौलत का सहारा लेकर,
हम ग़रीबों की मुहब्बत का उड़ाया है मज़ाक़।
मेरे महबूब कहीं और मिला कर मुझसे।

आज के लिए इतना ही,

नमस्कार।

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