थकी दोपहरी जैसी मां !

आज निदा फाज़ली साहब को याद करने का मन हो रहा है। समकालीन उर्दू शायरी में निदा साहब का अपना एक अलग ही स्थान है। बहुत सादगी के साथ जितनी बड़ी बात वो कह देते थे, वह आसान नहीं होता।

मैंने पहले भी उनकी बहुत सी रचनाएं शेयर की हैं, ‘बच्चा स्कूल जा रहा है’, तन्हा-तन्हा दुख झेलेंगे, महफिल-महफिल गाएंगे, जब तक आंसू पास रहेंगे, तब तक गीत सुनाएंगे, और उनके लाजवाब दोहे- ‘मैं रोया परदेस में, भीगा मां का प्यार, दुख ने दुख से बात की बिन चिट्ठी, बिन तार’।

आज मैं उनकी जो रचना शेयर कर रहा हूँ, वह ‘मां’ के बारे में एक लाजवाब रचना है। आइए इस रचना का आनंद लेते हैं।

 

बेसन की सोंधी रोटी पर,
खट्टी चटनी जैसी माँ,
याद आती है, चौका-बासन ,
चिमटा, फुकनी जैसी माँ ।

बाँस की खुर्री खाट के ऊपर,
हर आहट पर कान धरे ,
आधी सोई, आधी जागी,
थकी दोपहरी जैसी माँ ।

चिड़ियों के चहकार में गूंजे,
राधा-मोहन, अली-अली,
मुर्ग़े की आवाज़ से खुलती ,
घर की कुंडी जैसी माँ।

बीवी, बेटी, बहन, पड़ोसन,
थोड़ी थोड़ी सी सब में,
दिन भर इक रस्सी के ऊपर,
चलती नटनी जैसी माँ ।

बाँट के अपना चेहरा, माथा,
आँखें जाने कहाँ गई,
फटे पुराने इक अलबम में,
चंचल लड़की जैसी माँ।

आज के लिए इतना ही,

नमस्कार।


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