मन के पंछी उड़-उड़ हारे!

हिंदी कविताओं पर चर्चा करने के क्रम में मैंने पिछली बार, हिंदी कवि सम्मेलनों में अपने समय में धूम मचाने वाले एक कवि स्व. श्री गोपाल सिंह नेपाली जी की एक कविता शेयर की थी, आज उनकी एक और लोकप्रिय कविता आपको समर्पित कर रहा हूँ, एकाकी जीवन के अनुभव, जीवन का राही अपने अंदाज़ में कैसे बयान करता है कविता में, लीजिए इसका आनंद लीजिए –

 

तन का दिया, प्राण की बाती,
दीपक जलता रहा रात-भर ।

 

दु:ख की घनी बनी अँधियारी,
सुख के टिमटिम दूर सितारे,
उठती रही पीर की बदली,
मन के पंछी उड़-उड़ हारे ।

 

बची रही प्रिय की आँखों से,
मेरी कुटिया एक किनारे,
मिलता रहा स्नेह रस थोडा,
दीपक जलता रहा रात-भर ।

 

दुनिया देखी भी अनदेखी,
नगर न जाना, डगर न जानी;
रंग न देखा, रूप न देखा,
केवल बोली ही पहचानी,

 

कोई भी तो साथ नहीं था,
साथी था ऑंखों का पानी,
सूनी डगर सितारे टिमटिम,
पंथी चलता रहा रात-भर ।

 

अगणित तारों के प्रकाश में,
मैं अपने पथ पर चलता था,
मैंने देखा, गगन-गली में,
चाँद-सितारों को छलता था ।

 

आँधी में, तूफ़ानों में भी,
प्राण-दीप मेरा जलता था,
कोई छली खेल में मेरी,
दिशा बदलता रहा रात-भर ।

 

आज के लिए इतना ही,
नमस्कार।

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