जिगर मा बड़ी आग है!

ओंकारा फिल्म का एक गीत याद आ रहा जो गुलज़ार साहब ने लिखा, एक तरह से एक्स्प्रेशन के मामले में एक्सपेरीमेंट है| इस गीत का संगीत दिया है विशाल भारद्वाज जी ने और इसे गाया है सुनिधि चौहान और सुखविंदर सिंह ने| लीजिए इस गीत की कुछ पंक्तियाँ देख लेते हैं-

 

 

ना गिलाफ, ना लिहाफ,
ठंडी हवा भी खिलाफ ससुरी,
इत्ती सर्दी है किसी का लिहाफ लै ले,
जा पड़ौसी के चूल्हे से आग लै ले|

 

बीड़ी जलाई ले, जिगर से पिया,
जिगर मा बड़ी आग है!

अब बात ये है कि हमारे विभिन्न अंगों की अलग-अलग भूमिका होती हैं जिन्हें चिकित्सक अच्छी तरह जानते हैं| लेकिन इन अंगों की दूसरी भूमिका भी होती है, जिसको कवि-शायर ज्यादा अच्छी तरह जानते हैं| इन अंगों में से सबसे खराब हालत बेचारे दिल की होती है, जिसके बारे में मैंने पहले भी अपनी ब्लॉग पोस्ट्स में लिखा है| उसे बेचारे को बार-बार टूटना पड़ता है, कभी खिलौना बनना पड़ता है| अब उर्दू शायरी में दिल का काम तो टूटना होता ही है, परंतु हृदय में तो पहले ठेस ही लगती थी, लेकिन पूरब-पश्चिम के गीत में इंदीवर जी ने बेचारे हृदय को भी तोड़ ही डाला|

 

कोई जब तुम्हारा हृदय तोड़ दे
तड़पता हुआ जब कोई छोड दे, 
तब तुम मेरे पास आना प्रिये
मेरा दर खुला है, खुला ही रहेगा, 
तुम्हारे लिए|

 

ऐसे बहुत से उदाहरण खोजे जा सकते हैं जिनमें हमारे अंगों को शायरों की कल्पना को रूपायित करने के लिए अजीब भूमिकाएँ निभानी पड़ती हैं| जैसे ऊपर जिस गीत का उल्लेख किया गया है, उसमें जिगर को एक अलग तरह की भूमिका दी गई है| वैसे चिकित्सकों की निगाह में जिगर की जो भी भूमिका हो, हम ऐसा कहते हैं- उसमें बहुत जिगरा है, यानि हिम्मत है|

लेकिन ऊपर उल्लिखित फिल्म- ओंकारा के गीत में तो जिगर बेचारे को लाइटर या अंगीठी की भूमिका दे दी गई, भला जिगर बेचारा क्या बीड़ी जलाने के काम आएगा| लेकिन जब शायर ऐसा चाहते हैं, तो ऐसा ही सही| वैसे गीत यह बड़ा मजेदार है| आज इसके बहाने ही कुछ बात करने का मन हुआ सो कर ली, हमको भी तो कुछ क्रिएटिव आज़ादी है न जी|

आज के लिए इतना ही|
नमस्कार|

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