श्री कुबेर दत्त जी मेरे मित्र रहे थे जब वे संघर्ष कर रहे थे, दूरदर्शन में स्थापित होने से पहले| अत्यंत भावुकतापूर्ण गीत लिखा करते थे, अखबारों में छपने के लिए परिचर्चाएँ किया करते थे| एक परिचर्चा का शीर्षक मुझे अभी तक याद है- ‘ज़िंदगी है क़ैद पिंजरों में’ जिसमें उन्होंने मुझे भी शामिल किया था| मैंने उनके लिखे बहुत से पोस्टकार्ड काफी समय तक सँभालकर रखे, जिनमें वे लिखते थे कि वे मुझसे बहुत देर बात करना चाहते हैं|
बाद में दूरदर्शन में स्थापित होने के बाद तो बड़े-बड़े लोग उनके भक्त हो गए और उन्होंने अपने शुरू के गीतों को पलायन की निशानी मान लिया| मैंने अपनी शुरू की ब्लॉग पोस्ट्स में उनके कुछ गीत शेयर किए हैं| जैसे एक था-
‘ऐसी है अगवानी, चितकबरे मौसम की,
सुबह-शाम करते हैं झूठ को हजम,
सही गलत रिश्तों में बंधे हुए हम’
खैर आज उनकी लिखी एक ग़ज़ल शेयर कर रहा हूँ-
महलों से मुर्दघाट तक फैले हुए हैं आप,
मखमल से लेके टाट तक फैले हुए हैं आप|
बिजनेस बड़ा है आपका तारीफ़ क्या करें,
मन्दिर से लेके हाट तक फैले हुए हैं आप|
सोना बिछाना ओढ़ना सब ख़्वाब हो गए,
डनलप पिलो से खाट तक फैले हुए हैं आप|
ईमान तुल रहा है यहाँ कौडि़यों के मोल,
भाषण से लेके बाट तक फैले हुए हैं आप|
दरबारियों की भीड़ में जम्हूरियत का रक़्स,
आमद से लेके थाट तक फैले हुए हैं आप|
जनता का शोर ख़ूब है जनता कहीं नहीं,
संसद से राजघाट तक फैले हुए हैं आप|
आज के लिए इतना ही,
नमस्कार|
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