तो क्या यहीं करेंगे!

कुछ अलग तरह का भी होना चाहिए, इसलिए आज अशोक चक्रधर जी की एक कविता शेयर कर रहा हूँ जो आप देख सकते हैं कि अलग तरह की है| हाँ इसके बारे में कुछ कहूँगा नहीं, आप समझ सकते हैं कि इसमें मेरे कुछ कहने की जरूरत ही नहीं है|

लीजिए प्रस्तुत है यह कविता-

 

 

तलब होती है बावली,
क्योंकि रहती है उतावली।

 

बौड़म जी ने
सिगरेट ख़रीदी
एक जनरल स्टोर से,
और फ़ौरन लगा ली
मुँह के छोर से।
ख़ुशी में गुनगुनाने लगे,
और वहीं सुलगाने लगे।

 

दुकानदार ने टोका,
सिगरेट जलाने से रोका-
श्रीमान जी! मेहरबानी कीजिए,
पीनी है तो बाहर पीजिए।

 

बौड़म जी बोले-कमाल है,
ये तो बड़ा गोलमाल है।
पीने नहीं देते
तो बेचते क्यों हैं?

 

दुकानदार बोला-
इसका जवाब यों है
कि बेचते तो हम लोटा भी हैं,
और बेचते जमालघोटा भी हैं,
अगर इन्हें ख़रीदकर
आप हमें निहाल करेंगे,
तो क्या यहीं
उनका इस्तेमाल करेंगे?

 

आज के लिए इतना ही,
नमस्कार|

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